- चेतन मौर्य
आज संसार में जो कुछ भी अमानवीय घटित हो रहा है, वह केवल समय का परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक गंभीर सांस्कृतिक क्षरण का परिणाम है। यह कहना उचित नहीं होगा कि युग बदल गया है, बल्कि सत्य यह है कि हमारी संस्कृति, संस्कार और पारिवारिक मूल्य बदलते जा रहे हैं — और इसी परिवर्तन ने हमें एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहाँ श्रवण कुमार और श्रीराम जैसे आदर्श पुत्र अब केवल इतिहास और कथाओं तक सीमित रह गए हैं। आज जब कोई वृद्ध माता-पिता अपनी ही संतान द्वारा तिरस्कृत होते हैं, तो उनका मन यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या वे उसी धरती पर खड़े हैं, जहाँ कभी पुत्र धर्म की मिसालें गढ़ी गई थीं?
गोपाल अपने बच्चे के जन्म से पहले ही मन में हजारों कल्पनाएँ बुन रहा होता है, और घर को खिलौनों से भर देता है,आख़िरकार उसने सपनों से खेलने वाला उसकी दुनिया में जन्म लेता है, बच्चे का जन्मदिन बड़े हषोल्लाष से मनाया गया, रिश्तेदारों, व्यवहारियों को प्रतिभोज पर आमंत्रित किया गया, बेटे का नाम 'अमन' रखा गया। अब परिवार के जीवन में एक और त्यौहार जुड़ गया और अमन का जन्मदिन हर साल होली और दिवाली से भी ज़्यादा धूमधाम से मनाया जाने लगा।
गोपाल और उसकी पत्नी अपने पुत्र के भविष्य को लेकर अत्यंत सजग थे। वे दोनों इस उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्ध हो गए कि उनका पुत्र एक आदर्श, शिक्षित और जिम्मेदार नागरिक के रूप में विकसित हो। उन्होंने पूरे समर्पण के साथ उसकी परवरिश में स्वयं को लगा दिया। माँ ने उसे बोलना, चलना, खाना-पीना जैसे जीवन के प्राथमिक संस्कार सिखाए, तो पिता ने अपने शौक और आराम त्यागकर उसकी शिक्षा और भविष्य की नींव मजबूत करने के लिए कठिन परिश्रम करना शुरू किया। जब वह शिक्षा योग्य हुआ, तो उन्होंने उसे शहर के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में दाखिला दिलवाया ताकि वह ज्ञान, चरित्र और मूल्य-बोध के साथ जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
माँ हर दिन उसे स्नान करातीं, कपड़े पहनातीं और खाना खिलाकर स्कूल के लिए तैयार करतीं, पिता जी समय पर उसे स्कूल पहुँचाते और फिर खेतों में काम करने चले जाते, ताकि परिवार का भरण-पोषण सुचारु रूप से चलता रहे। लड़का पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि था, प्रत्येक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करता रहा। उसकी सफलता देखकर माता-पिता का हृदय गर्व से भर उठता। अपनी इंटरमीडिएट की शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इस दौरान परिजनों ने यह सुनिश्चित किया कि उसे किसी भी प्रकार की कोई कमी न हो।उन्होंनेअपने शौक त्यागकर, उसकी सुख सुविधाओं, खाने-पीने, रहने आदि की उचित व्यवस्था की।
परिजनों का वर्षों का संघर्ष और अमन की अथक मेहनत अंततः रंग लाई। वह मात्र बाईस वर्ष की आयु में अपने ही ज़िले की दीवानी अदालत में सरकारी वकील के पद पर नियुक्त हुआ। यह केवल उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं थी, बल्कि पूरे परिवार के त्याग, तपस्या और समर्पण का प्रतिफल था। गोपाल की आँखों में वर्षों से संजोए गए सपनों को जैसे मूर्त रूप मिल गया हो। गाँव, समाज और नाते-रिश्तेदार—सभी जगह अमन की चर्चा थी, अब वह केवल गोपाल का बेटा नहीं रहा, वह पूरे समाज का गौरव बन चुका था।
वकील साहब का उठना-बैठना शिक्षित और संभ्रांत वर्ग के लोगों के साथ होने लगा था। धीरे-धीरे उनके व्यवहार, विचार और जीवन-दृष्टि में भी उसी समाज के अनुरूप परिवर्तन आने लगे। वे किसी भी दृष्टि से दूसरों से कम प्रतीत नहीं होना चाहते थे, उन्होंने अपने जीवन की पुराने ढर्रे को छोड़कर परिवर्तन की राह पर पहला कदम रख दिया।सबसे पहले उन्होंने एक बड़ी और चमचमाती गाड़ी खरीदी, फिर वर्षों का सपना साकार करते हुए शहर के पॉश इलाके में एक भव्य बंगले का निर्माण कराया। इस भौतिक सुख-सुविधा को प्राप्त करने के लिए उन्हें बैंक से भारी ऋण लेना पड़ा, किंतु वे आश्वस्त थे कि यह सब उनके बढ़ते रुतबे के अनुरूप आवश्यक था। नवगृह में प्रवेश की तिथि भी निश्चित हो चुकी थी, घर को सजाया जा रहा था, स्वप्नों को आकार मिल रहा था। परंतु ठीक उसी समय नियति ने ऐसी करवट ली कि सब कुछ जैसे ठहर गया। उनकी वृद्ध माता, जो वर्षों से उसी छोटे से घर को अपना संसार मानती थीं, अचानक संसार से विदा हो गईं। माँ की निश्छल मुस्कान, उनके हाथों का बना भोजन, और हर शाम दरवाज़े पर उनका प्रतीक्षारत चेहरा — सब जैसे स्मृतियों में धुंधला होने लगा| पिताजी ने मन ही मन यह निर्णय लिया कि अब समय आ गया है जब घर में बहू के कदमों की आहट सुनाई दे। उन्होंने बिना किसी आग्रह के पुत्र की पसंद को सहज भाव से स्वीकार कर लिया|
बहू के आगमन के पश्चात् घर जैसे नवजीवन से भर उठा। हर कोना सुसज्जित और सुव्यवस्थित दिखाई देने लगा। आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त वह घर अब किसी शहरी चित्रपटल-सा प्रतीत होता था। फ्रिज ताज़ी सब्ज़ियों, रसीले फलों और रंग-बिरंगे जूसों से सदैव भरा रहता था। पर इस भव्यता के मध्य एक नाम जो अक्सर अनकहा रह जाता था — वह थे पिताजी ! न तो कोई उनसे कभी यह पूछता कि उन्हें क्या चाहिए, न ही उन्होंने कभी किसी से कोई अपेक्षा की, उन्हें इस चकाचौंध से कोई आपत्ति भी नहीं थी। वे तो सदा की भाँति अपनी सादगी में ही रहे। आज भी वे भोर होते ही खेतों की ओर निकल जाते हैं। उनका जीवन अब भी वैसा ही है — सरल, निर्विकार और श्रमशील। उनके लिए भव्यता नहीं, आत्मनिर्भरता ही आत्मसम्मान है।
इस बीच वकील साहब के जीवन में एक नई ख़ुशी का आगमन हुआ — एक पुत्री का जन्म। वे उसके लालन-पालन में इस तरह डूब गए कि अनजाने में पिताजी कहीं पीछे छूटते चले गए। वर्षों बीत गए, और अब वह बेटी पाँच वर्ष की हो चुकी थी, पर पिताजी का शरीर अब पहले जैसा साथ नहीं दे रहा था। वर्षा का मौसम था — हवा में नमी के साथ-साथ पिताजी की साँसों में भी एक बेचैनी घुल चुकी थी। उनकी तबीयत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। अंततः एक दिन, कांपते हाथों में लकड़ी की छड़ी थामे, वे धीरे-धीरे अस्पताल तक पहुँच ही गए। डॉक्टर ने उनकी जाँच की — एक्स-रे और रक्त परीक्षण कराया गया। रिपोर्ट आई ... उन्हें टी.बी. था। जाँच में ही उनके पास की सारी जमापूंजी खर्च हो चुकी थी। दवाइयाँ ख़रीदने को कुछ बचा नहीं था, अंततः वे बिना दवा लिए ही चुपचाप लौट आए। संकोच के कारण उसने किसी से मदद नहीं मांगी। दो दिन और बीत गए। दर्द अब असहनीय हो चला था, पीड़ा की तीव्रता ने अंततः उनके मौन को तोड़ दिया, कांपती आवाज़ में उन्होंने वकील साहब से कहा —"बेटा, अब ये पीड़ा बर्दाश्त नहीं होती… मेरा इलाज करवा दो..." वकील साहब ने एक क्षण पिताजी की ओर देखा, फिर नज़रें फेरते हुए बस इतना कहा — "ठीक है, शाम को चलते हैं..." उस पल, शायद एक पिता की सबसे गहरी पीड़ा वह बीमारी नहीं थी — बल्कि बेटे की उस असंवेदनशील "ठीक है" में छिपी उपेक्षा थी।
शाम से सुबह हो गई, पिताजी का उपचार नहीं हुआ, अब उनका दिन एक नई विवशता के साथ शुरू होता। हर सुबह, कांपते हाथों में छड़ी थामे, वे धीमे-धीमे खेत की ओर चल पड़ते। वहाँ जाकर मेड़ पर चुपचाप बैठ जाते — बिना कुछ कहे, बिना कुछ माँगे — बस अपनी सूनी आँखों से दूर-दूर तक फैले लहराते खेतों को निहारा करते। चारों ओर के खेतों में धान की हरियाली अठखेलियाँ कर रही होती, पत्तियां हवा में झूम रही होतीं । वहीं पिताजी के खेतों पर कोई फसल नहीं थी, खली — वीरान और उपेक्षित। उनकी आँखों में न कोई शिकायत थी, न कोई उम्मीद… बस एक गहरा मौन था — मौन जो कहता था कि अब वो स्वयं भी सूखते खेत की तरह ही जीवन के अंतिम छोर पर खड़े हैं। एक दिन पिताजी की हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि उनके लिए घर लौट पाना भी संभव नहीं रहा। खेतों के पास से ही रेलवे लाइन गई है। वे छड़ी के सहारे किसी तरह उस पथरीली पटरी तक पहुँचे — थककर वहीं बैठ गए। आसमान में बादल थे, हवा भारी थी। उन्होंने एक गहरी, लंबी साँस ली — मानो जीवन का सारा मौन, सारी उपेक्षा और असहायता उस साँस में समेट लेना चाहते हों। और इसी के साथ मालगाड़ी उनकी साँसों को समेट लेती है।
वकील साहब ने इस घटना को एक दुर्घटना का रूप दे दिया, और तेरहवीं संस्कार में लाखों रुपये ख़र्च कर दिए गए। सजे हुए मंडप, महंगे भोग, और लंबी कतार में खड़े शोक-संतप्त चेहरे — सब कुछ था वहाँ............
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